खुरपका एवं मुँहपका रोग के लक्षण, बचाव एवं उपचार

खुरपका एवं मुँहपका रोग एक अनोखी और विषाणु जनित बीमारी है, जिसके फैलने की गति बेहद तेज होती है। इस बीमारी से गाय, भैंस, भेंड़, बकरी, हिरन, सूअर और अन्य जंगली पशु प्रभावित होते हैं। गायों और भैंसों में इस बीमारी का आमतौर पर देखा गया है।

यह बीमारी पशुओं में तीव्र बुखार (104-106०F) के साथ-साथ मुँह और खुरों पर छाले और घाव पैदा करती है। रोग के प्रभाव से कुछ जानवर स्थायी रूप से लंगड़े भी हो सकते हैं, जिसके कारण वे खेती के काम में असहाय हो जाते हैं।

गायों का तो गर्भपात भी हो सकता है, और असमय पर इलाज न करने से पशु मर भी सकते हैं। इस बीमारी से प्रभावित पशुओं के दूध उत्पादन में कमी होती है। हालांकि ऐसे पशुओं का दूध उपयोग में नहीं लेना चाहिए। इस रोग से पशुधन उत्पादन में भारी कमी होती है, और पशु उत्पादों के निर्यात पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

मुँहपका-खुरपका रोग के कारण

रोग के कारण मुँहपका-खुरपका रोग एक अत्यंत छोटे आकार के वायरस द्वारा होता है, इस वायरस का नाम “एप्थो वायरस” है जो “पिकोर्नाविरिडी फैमिली” का है। विश्व में इस वायरस के 7 किस्में पायी जाती हैं (A, O, C, SAT1, SAT2, SAT3 और Asia1) तथा इनकी 14 उप-किस्में शामिल हैं। हमारे देश में यह रोग मुख्यत: ओ.ए.सी. तथा एशिया-1 प्रकार के विषाणुओं द्वारा होता है। प्रत्येक वायरस की किस्म के लिए एक स्पेसिफिक टीका की आवश्यकता होती है जिससे पशु को इस बीमारी से सुरक्षा मिल सके।

किन कारणों से फैलता है यह रोग

  • मुखपाका रोग जो मुख्य रूप से बीमार पशु के विभिन्न स्राव और उत्सर्जित द्रव जैसे लार, गोबर, दूध के सीधे संपर्क में आने से फैलता है।
  • दाना, पानी, घास, बर्तन, दूध निकालने वाले व्यक्ति के हाथों से और हवा से भी फैलता है।
  • इस स्राव में विषाणु बहुत अधिक संख्या में होते हैं, और स्वस्थ जानवर के शरीर में मुंह और नाक के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं।
  • यह रोग संक्रमित जानवरों को स्वस्थ जानवरों के एक साथ बाड़े में रखने से, एक ही बर्तन से खाना खाने और पानी पीने से, एक दूसरे का झूठा चारा खाने से फैलता है।
  • ये विषाणु खुले में घास, चारा, तथा फर्श पर कई महीनों तक जीवित रह सकते हैं, लेकिन गर्मी के मौसम में यह बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं।
  • विषाणु जीभ, मुंह, आंत, खुरों के बीच की जगह, थनों तथा घाव आदि के द्वारा स्वस्थ पशु के रक्त में पहुंचते हैं, तथा लगभग 4-5 दिनों के अंदर उसमें बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं।

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खुरपाका बीमारी के लक्षण

  • खुरपाका नामक बीमारी में पशु को जाड़ा देकर तेज बुखार (104-106०F) होता है।
  • पशु चारा कम खाता है, दूध कम देता है,
  • मुंह से लार बहने लगती है।
  • बीमार पशु के मुंह में मुख्यता से जीभ के ऊपर, होंठों के अंदर, मसूड़ों पर और खुरों के बीच की जगह पर छोटे-छोटे छाले बन जाते हैं।
  • धीरे-धीरे ये छाले आपस में मिलकर बड़ा छाला बनाते हैं।
  • ये छाले फूट जाते हैं और उनमें जख्म हो जाते हैं।
  • मुंह में छाले हो जाने की वजह से पशु जुगाली बंद कर देता है और खाना पीना छोड़ देता है।
  • मुंह से निरंतर लार गिरती रहती है साथ ही मुंह चलाने पर चप-चप की आवाज़ भी सुनाई देती है।
  • खुर में जख्म होने की वजह से पशु लंगड़ाकर चलता है।
  • दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन 80 प्रतिशत तक कम हो जाता है।
  • पशु कमजोर होने लगते हैं।

मुँहपका-खुरपका रोग का उपचार

बीमारी होने पर पशु चिकित्सक से सलाह लेना चाहिए एवं आवश्यकतानुसार एंटीबायोटिक इंजेक्शन भी लगाए जा सकते हैं। बीमार पशु को स्वस्थ पशुओं से तुरंत अलग कर दें। बीमार पशु को पूर्ण आराम दें।

रोगग्रस्त घाव को कीटाणुनाशक दवाओं के घोल से धोयें। रोगग्रस्त पशु के पैर को नीम एवं पीपल के छाल को उबालकर ठंडा करके दिन में दो से तीन बार धोयें।

प्रभावित पैरों को फिनाइल-युक्त पानी से दिन में दो-तीन बार धोकर मक्खी को दूर रखने वाली मलहम का प्रयोग करें।

मुंह के छाले को 1 प्रतिशत फिटकरी के पानी में घोल बना कर दिन में तीन बार धोयें। मुंह में बोरो ग्लिसरीन (850 मिली ग्लिसरीन एवं 120 ग्राम बोरेक्स) लगाएं।

शहद एवं मडूआ या रागी के आटे को मिलाकर लेप बनाएं एवं मुंह में लगाया जा सकता है। इस दौरान पशुओं को मुलायम एवं सुपाच्य भोजन दिया जाना चाहिए।

इस रोग से बचाव का उपाय

  • पशुओं को मुंहपका और खुरपका बीमारी से बचाने के लिए सबसे अच्छा उपाय टीकाकरण है।
  • इस बीमारी से बचाव के लिए पशुओं को पोलीवेलेंट वैक्सीन वर्ष में दो बार अवश्य लगवानी चाहिए।
  • पशु के बच्चों को पहला टीका 4 महीने की आयु में, दूसरा बूस्टर टीका 1 महीने बाद और उसके बाद हर 6 महीने में एफ एमडी बीमारी का टीका लगवाना चाहिए।
  • अगर बीमारी हो जाए तो रोगग्रस्त पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए।
  • बीमार पशुओं की देखभाल करने वाले व्यक्ति को भी स्वस्थ पशुओं से दूर रहना चाहिए।
  • बीमार पशुओं के आवागमन पर रोक लगा देनी चाहिए।
  • रोग से प्रभावित क्षेत्र से पशु नहीं खरीदना चाहिए।
  • पशुशाला को साफ-सुथरा रखना चाहिए।
  • चूना और संक्रमण नाशी दवा का छिड़काव करवाना चाहिए।
  • संक्रमित पशुओं को मुलायम और सुपाच्य आहार खिलाना चाहिए।
  • बीमारी से मरे पशु के शव को खुले में नहीं फेंकना चाहिए, गहरे गड्डे मे दबाना चाहिए।

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